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रामचरित मानस




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* तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥

जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3॥


भावार्थ:-उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतल वाले बाल रूप श्री रामजी घुटने और हाथों के बल मुझे पकड़ने को दौड़े॥3॥


* तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥

जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4॥


भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! तब मैं भाग चला। श्री रामजी ने मुझे पकड़ने के लिए भुजा फैलाई। मैं जैसे-जैसे आकाश में दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ श्री हरि की भुजा को अपने पास देखता था॥4॥


दोहा :

* ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।

जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ 79 क॥


भावार्थ:-मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखा, तो हे तात! श्री रामजी की भुजा में और मुझमें केवल दो ही अंगुल का बीच था॥ 79 (क)॥


* सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।

गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ 79 ख॥


भावार्थ:-सातों आवरणों को भेदकर जहाँ तक मेरी गति थी वहाँ तक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभु की भुजा को (अपने पीछे) देखकर मैं व्याकुल हो गया॥ 79 (ख)॥


चौपाई :

* मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥

मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1॥


भावार्थ:-जब मैं भयभीत हो गया, तब मैंने आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरी में पहुँच गया। मुझे देखकर श्री रामजी मुस्कुराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके मुख में चला गया।1॥


* उदर माझ सुनु अंडज राया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥

अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥


भावार्थ:-हे पक्षीराज! सुनिए, मैंने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डों के समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक से एक की बढ़कर थी॥2॥


* कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥

अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥


भावार्थ:-करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चंद्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,॥3॥


* सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥।

सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4॥


भावार्थ:-असंख्य समुद्र, नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर तथा चारों प्रकार के जड़ और चेतन जीव देखे॥4॥


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